कभी किताब-ए-दिल को पढ़ना
ये राज़ सारे अयाँ करेगा
जो करना चाहा ता’बीर-ए-गुरेज़ाँ
कैसे कहो खुद को बयां करेगा
हर पन्ने पर है मुख्तलिफ़ सी स्याही
हर हर्फ़ दर्द-ए-निहाँ कहेगा
कभी किताब-ए-दिल को पढ़ना
कि राज़दारी से है सजाया
हर तोहफा-ए-गम इस ज़िंदगी का
जो होना चाहो इल्तिफ़ात-ए-गुरेज़ाँ
तो ये इख़्तिलाफ-ए-वफ़ा करेगा
हर पन्ने पर है मुख्तलिफ़ सी स्याही
हर हर्फ़ दर्द-ए-निहाँ कहेगा
कभी किताब-ए-दिल को पढ़ना
न ये तपिश है न है कोई आतिश
ये चराग़-ए-ख़ुद-कलामी का धुआँ धुआँ है
तुम छुपाना चाहो जो चश्म-ए-तर को
तो ये अब्र-ए-बाराँ सा आ गिरेगा
हर पन्ने पर है मुख्तलिफ़ सी स्याही
हर हर्फ़ दर्द-ए-निहाँ कहेगा
कभी किताब-ए-दिल को पढ़ना
#wingsofpoetry
अयाँ- Reveal
ताबीर-ए-गुरेजाँ- To escape from interpretation
दर्द-ए-निहाँ- Hidden pain
इल्तिफ़ात-ए-गुरेजाँ- Love of ignoring
इख़्तिलाफ-ए-वफा- Opposition to remain faithful
चराग़-ए-ख़ुद-कलामी- Conversation with self
चश्म-ए-तर- Wet eyes
अब्र-ए-बाराँ- Heavy rainy clouds