घर की वीरानी
घर की वीरानी में भी दीवारें बोल उठती हैं,
अक्सर तन्हाई में भी ये महफिलें शोर करती हैं,
अकेले में भी तन्हा न रहूँ, ये कोशिशें इन ईंट-पत्थरों की,
ज़मीं पर ही जन्नत के नज़ारे खोल देती हैं,
देखती हूँ गौर से जब इन दर-और-दीवारों को,
वो सीने में दफ़न कई राज़ गहरे बोल देती हैं,
कौन कहता है कि सुकून बिकता नहीं है दामों में,
मुझे अक्सर चंद लम्हों के बदले ये सुकून तौल देती हैं,
घर की वीरानी भली दिखावटी नकली मुखौटों से,
ये बंद दरवाज़ों में मुझे रूहानियत में घोल देती हैं ।