यादों में कहीं कोई सुराख न कर दे, इस बात से डर लगता है,
छन-छन के बह न जाएँ एक-एक कर, इस बात से डर लगता है!
फ़क़त ये चंद मोती हैं, जो सँभाले हैं जीने के लिए,
लेकिन यूँ न समझ लेना कि मुझे मौत से डर लगता है!
परछाईं की माफिक धीरे-धीरे सिमट रही है जिंदगी,
सच तो ये है कि अब मुझे जीने से ही डर लगता है!
दूध में शक्कर सा घोल, पिला दिया तुझे ऐ जिंदगी,
अब जो बाकी बचा उस वजूद की कड़वाहट से डर लगता है!
अपनाए जाने की चाह नहीं, ठुकराए जाने का गम नहीं,
इस शुष्क दिल के और शुष्क हो जाने से डर लगता है!
बंद होते किवाड़ों की चौखट पर उम्मीदें दम तोड़ती गईं,
कहीं कोई जिंदा न हो उठे फिर से इस बात से डर लगता है!
सरपरस्त तो हैं बहुत, अहल-ए-दिल कोई तो हो,
मुझे महफिल में महफिल की तन्हाई से डर लगता है!
यादों में कहीं कोई सुराख न कर दे इस बात से डर लगता है,
सोचती हूँ तो लगता है,आजकल क्यों हर बात से डर लगता है!
Meenakshi Sethi, Wings Of Poetry
So much agony, and so much fear so well expressed, Meenakshi. Hope all is well at your end.
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Thank You Deepika! All well, just an attempt to a prompt 🙂
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Beautiful
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Thank You!
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Glad to connect with you
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You got great writing skills
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Thanks for the compliment!
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😁😁😁
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