क्या खरीदने निकले हो
खुशियाँ बिकती नहीं और गम का कोई खरीददार नहीं,
आस सस्ती नहीं और बेसब्री का कोई हिसाब नहीं,
प्यार महंगा है बहुत और नफरतों को पालना आसान नहीं,
शांति की कोई दुकान नहीं और अशांति का समाधान नहीं,
क्या ख़रीदने निकले हो?
बिकने वाली चीज़ खुद मजबूर है और जो बिकती नहीं उसका कोई बाज़ार नहीं ।