आकाश
जब कभी फुरसत में आकाश के विस्तार को देखती हूँ
सोचती हूँ, ये भी किसी माँ के दिल जैसा है ।
सूरज का ताप, चाँद का गलना
तो कभी दंभ से फूलना
और तारों का टूटना-बिखरना
सब सहता है, चुपचाप।
कभी जब मन भारी हो जाए तो रो भी लेता है दिल खोलकर
और फिर भुला देता है सारे संताप
शीतल हो उठता है एक बार फिर से
अपनी सौम्य नीलिमा में लपेट
पुनः ममता लुटाने को तैयार
जिसका आँचल कभी छोटा नहीं पड़ता,
माँ के दिल जैसा ये भी है विशाल !