मैं और मेरे कातिल
कतरा-कतरा रोज़ मरा करते हैं,
हम अपने कातिल साथ लिए चलते हैं ।
बड़े दिलदार हैं ये, गुनहगार खुद को करते हैं,
कहने को तो खुदा से, ये भी डरा करते हैं ।
यूँ तो हँसना हमारा था कसूर, इनकी नज़र,
अब कभी न मुस्कुराने का, इल्ज़ाम हम पर धरते हैं ।
बड़े काफिर हैं और बेरहम हैं ये कातिल या-खुदा,
तोड़कर, बिना दरारों के जुड़ जाने का हुक्म करते हैं ।
कैसे शिकवा करूँ, किससे करूँ ऐ-खुदाया मेरे ?
मुझसे ज़्यादा तेरी बंदगी में तो ये महबूब झुका करते हैं ।
अब ये आज़ाब खत्म हो, या बढ़े बर्दाश्त मेरी,
या कत्ल पूरी तरह हों, आखिर हम इतना तो हक रखते हैं!
क्यों भला कतरा-कतरा रोज़ मरा करते हैं ?
हम अपने कातिल जो साथ लिए चलते हैं ।